प्रोटीन (Proteins)
प्रोटीन अति जटिल नाइट्रोजन युक्त वृहद कार्बनिक अणु (macromolecules) है जो जीवित कोशिकाओं (living cells) में पाये जाते हैं। ये प्राणियों के लिए अति आवश्यक हैं। ये हमारे भोजन को अनिवार्य घटक है। वसा और कार्बोहाइड्रेट के बिना मनुष्य काफी समय तक जीवित रह सकता है, किन्तु प्रोटीन के बिना मनुष्य अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। जीब्रदव्य (protoplasm) का मुख्य अवयव प्रोटीन ही है। मनुष्य को अपनी वृद्धि और विकास (नयी कोशिकाओं की क्षतिपूर्ति) के लिए प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। प्रोटीन शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द प्रोटियोस (proteos) से हुई है जिसका अर्थ होता है "To take the first place" क्योंकि यह प्रत्येक जीव का प्राथमिक एवं अनिवार्य घटक है। ये शरीर में विभिन्न जैविक कार्य (biological functions) करते हैं। कुछ ऊतकों के ये संरचनात्मक घटक (structural component) भी हैं। कुछ महत्वपूर्ण प्रोटीन के नाम व उनके कार्य निम्नलिखित सारणी में दिये गये हैं :
प्रोटीन का मूल स्रोत पेड़-पौधे हैं जो अपनी प्रोटीन का निर्माण कार्बन डाइऑक्साइड, जल और भूमि में उपस्थित खनिज लवणों से सौर ऊर्जा की उपस्थिति में करते हैं। जीव-जन्तु अपनी प्रोटीन पेड़-पौधों से प्राप्त करते हैं। प्राणी जब पेड़-पौधों को खाते हैं तब इनमें उपस्थित प्रोटीन एन्जाइम की उपस्थिति में ऐमीनो अम्ल में जल-अपघटित हो जाते हैं। ये ऐमीनो अम्ल रक्त द्वारा शोषित कर लिये जाते हैं तथा रक्त के प्रवाह के साथ शरीर के विभिन्न ऊतकों में पहुंचते हैं और प्रोटीन का निर्माण करते हैं। अतः यह कहा जा सकता
है कि प्रोटीन ऐमीनो अम्लों के बहुलक (polymer) हैं।
संघटन (Composition)
प्रोटीन का कोई निश्चित संघटन नहीं होता है। यह स्रोत के अनुसार बदलता रहता है। इसमें C.H,N और O सदैव उपस्थित रहते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ प्रोटीनों में आयोडीन (thyroxine में), आयरन (हीमोग्लोबिन में), फॉस्फोरस (न्यूक्लिओ प्रोटीन में), सल्फर, कैल्शियम आदि भी सूक्ष्म मात्रा में उपस्थित रहते हैं।
C=50-55%
S=0*3-0.5%
N=14-18%
O=20-24%
H=6-7%
P, Fe, Cu, Co आदि सूक्ष्म मात्रा में।
प्रोटीन का वर्गीकरण (Classification of Protiens)
प्रोटीनों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया गया है, जिनका वर्णन निम्नलिखित है:
1. आण्विक संरचना तथा कार्य के आधार पर इस आधार पर प्रोटीन दो प्रकार की होती है।
(a) रेशेदार प्रोटीन तथा (b) गोलाकार प्रोटीन
(a) रेशेदार प्रोटीन (Fibrous Protein)-
रेशेदार प्रोटीन के अणु लम्बे धागे के समान होते हैं जो बगल-बगल (side by side) स्थित होकर रेशे (fibres) बनाते हैं। कुछ स्थानों पर ये अणु परस्पर हाइड्रोजन आबन्धों के द्वारा परस्पर जुड़े भी रहते हैं। ये जल में अविलेय होते हैं। जल में अविलेयता तथा रेशेदार प्रकृति के कारण ये जन्तु ऊतकों के प्रमुख संरनात्मक द्रव्य (structural material) के रूप में कार्य करते हैं।
For example
(i) किरैटिन (keratin)- skin , बाल, नाखून, ऊन, सींग, पंख आदि में।
(ii) कॉलाजेन (Collagen)-त्वचा, हड्डियों तथा टेण्डोन (tendons) में। की माँसपेशियों (muscles) में।
(iii) मायोसिन (Myosin)-अस्थिपंजर
(iv) फाइब्रोइन (Fibroin) - रेशम में।
(B) गोलाकार प्रोटीन (GLOBULAR PROTEIN)
इनके अणु शाखित व गोलाकार होते हैं। ग्लोब्यूलर प्रोटीन में उसके अणु वलित (fold) होकर सघन यूनिट (compact unit) बनाते हैं, जिसकी गोलाकार आकृति (spherical shape) होती है। इन यूनिटों में परस्पर सम्पर्क क्षेत्र कम होता है और केवल आन्तरिक हाइड्रोजन आबन्ध होते हैं। फलस्वरूप इनमें अन्तराअणुक (intramolecular) आकर्षण बल कम होता है। ये जल तथा अम्ल, क्षार और लवणों के जलीय विलयन में विलेय होते हैं।
• गोलाकार प्रोटीन के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं: (i) एन्जाइम-ये जैविक क्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं।
(ii) हॉर्मोन-
कुछ हॉर्मोन, जैसे-इन्सुलिन (insulin) और थायरोग्लोबिन (thyroglobin) उपापचय क्रियाओं को नियन्त्रित करते हैं।
(iii) हीमोग्लोबिन -
O2 व CO2 परिवहन (transport) में।
(iv) फाइब्रिनोजेन-
रक्त का थक्का जमना (clotting of blood)। इसमें विलेय फाइब्रिनोजन (fibrinogen) अविलेय रेशेदार प्रोटीन फाइब्रिन (fibrin) में परिवर्तित हो जाता है।
(v) ऐण्टीबॉडी-
कुछ गोलाकार प्रोटीन प्रतिरक्षी के रूप में कार्य करके शरीर की रोगों से रक्षा करती हैं।
2. कार्यों के आधार पर प्रोटीनों का वर्गीकरण कार्य के आधार पर प्रोटीन निम्नलिखित छः प्रकार के होते हैं :
(i) संरचनात्मक प्रोटीन-
उदाहरणार्थ-कॉलाजन (collagen) जोकि त्वचा, कार्टिलेज व अस्थियों में पायी जाती है।
(ii) संकुचनशील प्रोटीन-
उदाहरणार्थ- मायोसिन (myosin) और एक्टिन (actin) जोकि अस्थि पेशियों (skeletal muscles) में पायी जाती हैं।
(iii) एन्जाइम-
उदाहरणार्थ-ट्रिप्सीन, पेप्सीन आदि जैविक क्रियाओं में उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं।
(iv) हॉर्मोन-
अधिकांश हॉर्मोन, जैसे-इन्सुलिन प्रोटीन होते हैं। यह शरीर में शर्करा उपापचय में भाग लेता है।
(v) प्रतिरक्षी-
उदाहरणार्थ- गामा ग्लोब्यूलिन (Gamma globuline)। जब शरीर में बाह्य संक्रमण (infection) होता है तब शरीर में ऐण्टीजेन (Antigen) उत्पन्न होते हैं जिसे नष्ट करने के लिए शरीर ऐण्टीबॉडी बनाती है।
(vi) रक्त प्रोटीन-
उदाहरणार्थ-फॉइब्रिनोजेन (fibrinogen), ऐलब्यूमिन (albumin), ग्लोब्यूलिन (globuline) |
3. भौतिक गुणों विशेषतया विलेयता के आधार पर वर्गीकरण-प्रोटीन तीन वर्गों में बाँटे गये हैं:
(1) साधारण प्रोटीन, (2) संयुग्मित (conjugated) प्रोटीन और (3) व्युत्पन्न (derived) प्रोटीन।
(1) साधारण प्रोटीन-ये केवल ऐमीनो अम्लों के बने होते हैं अर्थात् जल-अपघटन पर केवल ऐमीनो अम्ल देते हैं। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
(i) ऐल्ब्यूलिन (Albumin)-जल में घुलनशील किन्तु उदासीन लवण विलयन में अघुलनशील हैं। इनमें
सल्फर की मात्रा अधिक होती है जैसे-अण्डे की ऐल्ब्यूमिन, लैक्टे ऐल्ब्यूमिन (S44) , सीरम ऐल्ब्यूमिन (रक्त में)।
(ii) ग्लोब्यूलिन (Globuline)-जल में अविलेय किन्तु उदासीन लवण के तनु विलयन तनु अम्लं और
तनु क्षार में विलेय हैं। जैसे-रक्त सीरम (serum) और ऊतकों में।
(iii) ग्लूटेलिन (Gluteline)-तनु अम्ल और क्षार में विलेय; जैसे-गेहूँ में।
(iv) प्रोलामिन (Prolamin)-तनु अम्ल, तनु क्षार और 70-80% ऐथेनॉल में घुलनशील, जैसे--ग्लियेडिन (Gliadin) गेहूँ में और जीन (Zein) मक्का में।
(v) हिस्टोन (Histone)-जल में अविलेय किन्तु क्षार में विलेय; जैसे-जन्तुओं के ऊतकों में और हीमोग्लोबिन में।
(vi) प्रोटामिन (Protamin)-जल में विलेय किन्तु ऐल्कोहॉल में अविलय। जलीय विलयन गरम करने पर स्कन्दित नहीं होता है। जैसे-सेलमीन (सेलमन मछली में)।
(vii) इस्कलैरो प्रोटीन (Scleroproteins) - जल में अविलेय। ये शरीर को शक्ति देते हैं।
जैसे-कॉलाजन (हड्डी और कार्टिलेज) और कैराटीन (बाल में)।
(2) संयुग्मित (Conjugated) प्रोटीन-
ये जल-अपघटन पर ऐमीनो अम्ल के अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट न्यूक्लिक अम्ल (nucleic acid) या फॉस्फोरिक अम्ल आदि में से कोई एक पदार्थ देते हैं। प्रोटीनविहीन (non-protein) भाग को प्रोस्थेटिक (prosthetic) समूह कहते हैं। (ग्रीक; prosthesis = an addition)
प्रोस्थेटिक समूह की प्रकृति के अनुसार ये निम्न प्रकार के होते हैं :
(i) न्यूक्लिओ प्रोटीन (Nucleoproteins)- ये प्रोटीन तथा न्यूक्लिक अम्ल के बने होते हैं। ये समस्त कोशिकाओं के न्यूक्लियस में पाये जाते हैं।
(ii) ग्लाइको प्रोटीन (Glycoprotein)- ये प्रोटीन तथा किसी कार्बोहाइड्रेट, जैसे ग्लूकोसामीन और
ग्लूकोरोनिक (Glucoronic) अम्ल से मिलकर बने होते हैं। ये अण्डे के श्वेत में उपस्थित होते हैं।
(iii) फॉस्फोप्रोटीन (Phosphoprotein) - ये प्रोटीन और फॉस्फोरिक अम्ल से मिलकर बने होते हैं।
(iv) क्रोमोप्रोटीन (Chromoprotein) - इसमें धातु (Fe, Mg,Cu, Co, Mn) और प्रोस्थेटिक
जैसे-पाइरोल व्युत्पन्न भी उपस्थित रहते हैं। ये रंगहीन होते हैं, जैसे-हीमोग्लोबिन (रुधिर में), क्लोरोफिल
(पेड़-पौधों में), काला ऊन और बाल।
(3) व्युत्पन्न प्रोटीन (Derived Protein)- जब साधारण और संयुग्मित प्रोटीन का ऐमीनो अम्लों में जल-अपघटन होता है अथवा किया जाता है तब विभिन्न पदों में बनने वाले पदार्थ व्युत्पन्न प्रोटीन कहलाते हैं, जैसे- प्रोटियोस (proteos), पेप्टोन, पेप्टाइड इत्यादि।
प्रोटीन को प्राप्त करना (Isolation of Proteins)
पौधों के पिसे हुए बीजों अथवा जन्तुओं के कुचले हुए ऊतकों (tissues) को क्रम से जल, 10% NaCl, 0.2% KOH और 70-80% एथिल ऐल्कोहॉल द्वारा निष्कर्षित करते हैं। विभिन्न निष्कर्षों से प्रोटीन प्राप्त करने के लिए या तो इनका अपोहन (dialysis) करते हैं अथवा किसी उपयुक्त अभिकर्मक (NH 4 ) 2 SO 4 MgSO4 और ऐल्कोहॉल द्वारा अवक्षेपण करते हैं।
प्रोटीन की विशेषताएँ (Characteristics)
(1) प्रोटीन प्रायः रंगहीन, गन्धहीन, स्वादहीन, अक्रिस्टलीय (amorphous) पदार्थ है। इनके गलनांक निश्चित नहीं होते हैं। ये जल, क्षार, तनु अम्ल, तनु लवण विलयन में घुलकर कलिल विलयन (colloidal) बनाते हैं। ये विलयन ध्रुवण घूर्णक (optically active) होते हैं (प्राय: laevorotatory) । इनके अणुओं का आकार बहुत बड़ा होता है और अणुभार भी बहुत उच्च होते हैं, जैसे
(2) लवण बनाना-
चूँकि प्रोटीन ऐमीनो अम्लों से मिलकर बने होते हैं इसलिए - NH2 और -COOH समूहों की उपस्थिति के कारण प्रोटीन अम्ल अम्ल और क्षारक दोनों के साथ लवण बनाते हैं।
(3) जल-अपघटन– प्रोटीन अम्ल, क्षार और एन्जाइम द्वारा अवयवी ऐमीनो अम्लों में जल-अपघटित हो जाते हैं। अभिक्रिया मिश्रण में बने हुए ऐमीनो अम्लों की पहचान करके प्रोटीन की संरचना का कुछ संकेत मिल सकता है।
यह जल-अपघटन एक पद में नहीं होता है वरन कई पदों में होता है और प्रत्येक दशा में अन्तिम क्रियाफल ऐमीनो अम्ल बनते हैं।
प्रोटीन→प्रोटियोसेस→पेप्टीन→पेप्टाइड→ऐमीनो अम्ल
(4) ऑक्सीकरण-
जलाने अथवा सड़ने (putrefaction) पर ये ऑक्सीकृत हो जाते हैं और N2, C*O_{2}, H_{2} और ऐमीन जैसे पदार्थ बनते हैं। किसी निर्जीव शरीर के क्षय (decay- सड़ने) पर उत्पन्न होने दुर्गन्ध ऐमीनो के बनने के कारण होती है।
(5) स्कन्दन (Coagulation)-
जब प्रोटीन विलयन को अकेले अथवा ऐल्कोहॉल या खनिज अम्लों के साथ गरम किया जाता है तब कलिल प्रोटीन स्कन्दित (Coagulate) हो जाते हैं। इस नये बने हुए पदार्थ के भौतिक गुण, जैसे-विलेयता और शरीर-क्रियात्मक क्रिया आदि मूल पदार्थ से बिल्कुल भिन्न होते हैं। इस क्रिया को विकृतिकरण (Denaturation) कहते हैं। विकृतिकरण पर प्राथमिक संरचना अपरिवर्तित रहती है, किन्तु द्वितीयक और तृतीयक संरचना में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरणार्थ-जब अण्डे पकते हैं तब अण्डे के ऐल्ब्यूमिन (globular protein) का विकृतीकरण हो जाता है वह रबर के समान अविलेय ठोस में जम जाता है।
प्रोटीन का परीक्षण (TEST)
प्रोटीन का परीक्षण करने के लिए अनेक परीक्षण किये जाते हैं। कुछ प्रमुख परीक्षण निम्नलिखित हैं:
(1) जैन्थाप्रोटीक (Xanthoproteic) परीक्षण-
प्रोटीन विलयन को सान्द्र HN * O_{3} के साथ गरम करने पर पीला रंग उत्पन्न होता है। इस विलयन को NaOH या NH OH द्वारा क्षारीय बनाने पर नारंगी रंग आता है। त्वचा पर सान्द्र HNO3 गिर जाने पर पीला रंग इसी अभिक्रिया के कारण उत्पन्न होता है।
(2) बाइयूरेट परीक्षण-
प्रोटीन के क्षारीय विलयन में ताजे बने कॉपर सल्फेट की दो बूंदे डालने पर एक बैंगनी रंग उत्पन्न होता है। यह परीक्षण प्रोटीन में पेप्टाइड —CO —NH—CO भाग की उपस्थित के कारण आता है।
(3) मिलन का परीक्षण (Millon's Test) -
प्रोटीन को मिलन अभिकर्मक (मर्क्यूरस नाइट्रेट और मर्क्यूरिक नाइट्रेट का HNO3 में विलयन) के साथ गरम करने पर एक श्वेत अवक्षेप आता है जो बाद में लाल-भूरा हो जाता है।
(4) मॉलिश (Molish) परीक्षण-
प्रोटीन के विलयन में कुछ बूँदें ऐल्कोहॉलीय -नैफ्थॉल और सान्द्र हैं H2SO4 डालने पर एक बैंगनी रंग की रिंग बनती है। यह परीक्षण उन्हीं प्रोटीनों के द्वारा दिया जाता है जिनमें कार्बोहाइड्रेट का अंश होता है।
(5) हॉपकिन्स कोल परीक्षण (Hopkins Cole Test)-प्रोटीन के विलयन में ग्लाइ ऑक्सेलिक अम्ल मिलाकर परखनली की दीवार के सहारे सान्द्र H2SO4 की कुछ बूँदें डालने पर एक नीला बैंगनी रंग उत्पन्न होता है। यह परीक्षण प्रोटीन में ट्रिप्टोफेन (Tryptophan) ऐमीनो अम्ल की उपस्थिति के कारण आता है।
(6) निनहाइड्रिन परीक्षण (Ninhydrin Test)-
प्रोटीन के पिरीडीन में बने हुए विलयन में निनहाइड्रिन (Ninhydrin) की कुछ बूँदें डालने पर लाल, बैंगनी या नीला रंग उत्पन्न होता है। यह परीक्षण प्रोटीन में मुक्त ऐमीनो अम्ल की उपस्थिति के कारण आता है। (7) नाइट्रोप्रुसाइड परीक्षण-कुछ प्रोटीन जिनमें –SH समूह होता है सोडियम नाइट्रोप्रुसाइड के साथ लाल रंग उत्पन्न करते हैं।
(8) लैड-सल्फाइड परीक्षण-
प्रोटीन विलयन को कास्टिक सोडा और लैड ऐसीटेट विलयन के साथ गरम करने पर काला अवक्षेप आता है। यह परीक्षण वे प्रोटीन देते हैं जिनमें – S– या –SH समूह उपस्थित होते हैं।
(9) अवक्षेपण अभिक्रियाएँ-
प्रोटीन विलयन मरक्यूरिक क्लोराइड के साथ श्वेत अवक्षेप, पिकरिक अम्ल के साथ पीला अवक्षेप और कॉपर सल्फेट के साथ नीला अवक्षेप होता है।
प्रोटीन के कार्य (Functions of Proteins)
प्रोटीन के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं:
(1) शरीर के नये तन्तुओं का निर्माण हैं और उनकी टूट-फूट की मरम्मत करना।
(2) एन्जाइम का निर्माण करते हैं।
(3) कार्बोहाइड्रेट और वसा की अनुपस्थिति में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं।
(4) माँसपेशियों का संचालन करते हैं।
(5) माँसपेशियों में ऑक्सीजन का संचय
प्रोटीन की कमी से रोग (DISEASES)
शरीर में प्रोटीन की कमी से क्वाशिक्योर (Kwashikior) का रोग हो जाता है जिसके निम्नलिखित लक्षण -
शरीर में सूजन आ जाती है, त्वचा सूखी और भदरंगी हो जाती है, यकृत की capacity कम हो जाती है और दस्त आने लगते हैं।
प्रोटीन के उपयोग (USES OF PROTEINS)
(1) आहार के रूप मे - यह भोजन का आवश्यक अंग है, जैसे-अण्डा, गोश्त, दाल इत्यादि ।
(2) एन्जाइम- समस्त एन्जाइम प्रोटीन हैं।
(3) हॉर्मोन – शरीर की अनेक आवश्यक क्रिया में भाग लेने वाले हॉर्मोन प्रोटीन ही हैं।
(4) वस्त्रों में-केसीन (casein) का उपयोग कृत्रिम ऊन और रेश के बनाने में किया जाता हैं केसीन प्लास्टिक का उपयोग बटन बनाने में किया जाता है।
(5) औषधियों में — जिलेटिन का उपयोग केप्सूल (capsules) और फोटोग्राफी के फिल्म तथा प्लेट
दवाइयों में प्रयुक्त होने वाले ऐमीनो अम्ल प्रोटीन से प्राप्त किये जाते हैं। प्लाज्मा प्रोटीन (Plasma protein) का उपयोग गहरी दुर्घटना से पहुँचने वाले सदमे के उपचार में किया जाता है। इन्सुलिन (insulin एक प्रोटीन) मधुमेह (diabetes) रोगियों को शर्करा के अवशोषण का नियन्त्रण करने के लिए दिया जाता है। वाइरस (virus) रोग से उत्पन्न होने वाली बीमारियों, जैसे- चेचक
और फ्लू आदि के उपचार के लिए वैक्सीन (vaccines) बनाने में।
(6) चमड़ा उद्योग- चमड़े का निर्माण जानवरों की खालों की प्रोटीन की कमाई (tanning) करके किया जाता है।
प्रोटीन की संरचना (Structure of Proteins)
संरचनात्मक रूप से प्रोटीन ऐमीनो अम्लों के बहुलक हैं जोकि पेप्टाइड बन्धों के द्वारा परस्पर बँधे रहते हैं। विभिन्न ऐमीनो अम्ल परस्पर संयोजित होकर पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं का निर्माण करते हैं। ये श्रृंखलाएँ विभिन्न प्रकार से परस्पर जुड़कर प्रोटीन के जटिल अणु का निर्माण करती हैं। प्रोटीन की सम्पूर्ण संरचना निम्नलिखित पदों में निर्धारित की जा सकती है :
(1) प्राथमिक संरचना (Primary Structure)
प्रोटीन की पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला में विभिन्न ऐमीनो
अम्ल जिस क्रम underline mu जुड़े रहते हैं, उस क्रम को प्रोटीन की प्राथमिक संरचना कहते हैं। किसी प्रोटीन की जैविक सक्रियता (biological activity) तथा उसके कार्य उसमें उपस्थित ऐमीनो अम्लों के क्रम पर निर्भर करते है। यह देखा गया है कि किसी प्रोटीन के अवयवी ऐमीनो अम्लों में से किसी एक का भी क्रम बदल देने से उसके गुणों में बहुत अन्तर आ जाता है।
उदाहरणार्थ- हीमोग्लोबिन, प्रोटीन जो रक्त में पाया जाता है, श्वास द्वारा ग्रहण की गयी ऑक्सीजन को फेफड़ों से विभिन्न कोशिकाओं तक पहुँचाता है। इस प्रोटीन अणु में 574 ऐमीनो अम्लों की इकाइयाँ होती हैं। इनके क्रम में केवल एक ऐमीनो अम्ल क्रम बदल देने से मनुष्य में 'दात्र कोशिका अरक्तता या सिकिल सेल ऐनीमिया' नामक रोग हो जाता है।
सामान्य हीमोग्लोबिन - Val-Hist-Leu- Thr-Pro-Glu-Lys
सिकिल सेल हीमोग्लोबिन-Val-Hist-Leu-Thr-Glu–Lys
प्राथमिक संरचना ज्ञात करना एक कठिन कार्य है। फैड्रिक सेन्गर (Frederick senger) ने सर्वप्रथम इन्सुलिन (प्रोटीन) में ऐमीनो अम्लों का क्रम ज्ञात किया। इस कार्य के लिए उन्हें दो बार नोबुल पुरस्कार मिला।
(2) प्रोटीन की द्वितीयक संरचना– इसके द्वारा यह प्रकट होता है कि प्रोटीन की लम्बी लचीली पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाएँ परस्पर हाइड्रोजन बन्धों द्वारा आकर्षित एवं वलित होकर किस प्रकार की त्रिविमीय आकृति में व्यवस्थित होती है। इसे प्रोटीन की द्वितीयक संरचना कहते हैं। अतः प्रोटीन की त्रिविमीय संरचनाओं को ही प्रोटीन की द्वितीयक संरचना कहते हैं। द्वितीयक संरचना दो प्रकार की होती है :
(i) @–हेलिक्स संरचना- यह देखा गया है कि अनेक प्रोटीनों में पॉलीपेप्टाइड शृंखला कुण्डलित होकर एक सर्पिल (spiral) संरचना का निर्माण करती है जिसे -@ हैलिक्स संरचना (@-हैलिक्स विन्यास) कहते हैं। इस कुण्डलित आकृति का निर्माण एक ही पेप्टाइड श्रृंखला में C = O और NH समूहों के मध्य हाइड्रोजन बन्ध (> C = H-N) स्थापित हो जाने से होता है। इन बन्धों के द्वारा हेलिक्स अपनी सर्पिलाकार संरचना में बने रहते हैं। रेशेदार प्रोटीनें इस प्रकार की संरचना ग्रहण करती हैं, जैसे-बालों व ऊन में पाये जाने वाली प्रोटीन। इस प्रकार की प्रोटीनें लचीली होती हैं। जब इन्हें खींचा जाता है तब हेलिक्स का निर्माण करने वाले दुर्बल हाइड्रोजन बन्ध टूट जाते हैं जिससे हेलिक्स की लम्बाई स्प्रिंग के समान बढ़ जाती हैं जब इन्हें छोड़ देते हैं तब हाइड्रोजन बन्ध पुनः स्थापित हो जाते हैं और प्रोटीन पुनः कुण्डलित आकृति ग्रहण कर लेता है।
(ii) B-लहरियादार चद्दर जैसी संरचना-
हाइड्रोजन बन्ध दो भिन्न पेप्टाइड श्रृंखला के बीच भी स्थापित हो सकते हैं। जब समतलीय पेप्टाइड शृंखलाएँ एक दूसरे के समान्तर या प्रति समान्तर स्थित होती हैं तब श्रृंखलाओं के मध्य अन्तर-आणविक (intermolecular) हाइड्रोजन बन्ध स्थापित हो सकते हैं जिससे चपटी लहरियादार चादर चद्दरनुमा संरचना (flat sheet structure) का निर्माण होता है। चपटी चादर में उपस्थित ऐल्किल समूह (या पार्श्व श्रृंखलाएँ) वृहद आकार के होने के कारण एक-दूसरे के अति समीप हो जाते हैं और एक-दूसरे को उसके स्थान से परे धकेल देते हैं जिसके कारण पेप्टाइड शृंखला थोड़ी सिकुड़ जाती है और चादर अब चपटी न रहकर लहरियेदार (Pleated) हो जाती है। ऐसी चादरें एक-दूसरे पर एकत्रित होकर एक त्रिविमी (three dimensional) संरचना का निर्माण करती हैं, जिसे बीटा लहरिया चादर (B. pleated sheet) कहते हैं। इस प्रकार की संरचना वाले प्रोटीन बहुत मुलायम होते हैं। रेशम की ऐसी ही संरचना होती है। इसे चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
(3) तृतीयक संरचना-
कुछ प्रोटीनों में पेप्टाइड हेलिक्स अनेक बार मुड़कर या वलित (fold) होकर एक सटी हुई संहत (compact) लगभग गोलाकार आकृति की संरचना बनाती है। इसे प्रोटीन की तृतीयक संरचना कहते हैं। इस प्रकार बनी प्रोटीन को गोलाकार प्रोटीन (globular protein) या ग्लोबुलिन कहते हैं।
इन तृतीयक संरचनाओं की श्रृंखलाओं में परस्पर बहुत कम सम्पर्क होता है इसलिए इनमें अन्तर-आणविक (intermolecular) बल बहुत तीक्ष्ण होते है | इस संरचना का स्थायित्व पेप्टाइड श्रृंखला में उपस्थित पार्श्व-श्रृंखलाओं की परस्पर अन्योन्यक्रियास (interaction) पर निर्भर करता है।
तृतीयक संरचना के स्थायित्व को बनाये रखने वाले विभिन्न बल तृतीयक संरचना के स्थायित्व को बनाये रखने के लिए आवश्यकीय बल निम्न प्रकार के हो सकते हैं:
(i) हाइड्रोजन आबन्ध
(ii) डाइ सल्फाइड बन्ध
(iii) आयनिक या लवण सेतु
(iv) वाण्डरवाल्स बल
(v) हाइड्रोफोबिक बन्ध
ग्लोब्यूलर प्रोटीनों के कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं:
(i) ऐलब्यूमिन-अण्डे में।
(ii) सभी एन्जाइम तथा अनेक हॉर्मोन, जैसे-इन्सुलिन एवं थायरोग्लोबिन।
(iii) हीमोग्लोबिन तथा फाइब्रिनोजन-रक्त में।
प्रोटीन का विकृतीकरण (Denaturation of Proteins)
जब प्रोटीन को गरम किया जाता है अथवा अम्ल, सान्द्र लवण विलयन या भारी धातुओं के साथ अभिकृत किया जाता है तब ये स्कंदित हो जाते हैं। इस क्रिया को प्रोटीन का विकृतीकरण (Denaturing) या विषाक्तता कहते हैं। प्रोटीन विकृतीकरण पर अविलेय हो जाते हैं। विकृतीकरण पर प्राथमिक संरचना अपरिवर्तित रहती है, किन्तु द्वितीयक और तृतीयक संरचना में परिवर्तन हो जाता है। प्रोटीनों का विकृतीकरण दो प्रकार-उत्क्रमणीय (reversible) और अनुत्क्रमणीय (irreversible) का होता है। उदाहरणार्थ- जब अण्डे को उबलते हुए पानी में कुछ समय के लिए रखा जाता है तब अण्डे की प्रोटीन (globular protein) रबड़ के समान अविलेय ठोस में जम जाती है। यह अनुत्क्रमणीय विकृतीकरण है, क्योंकि प्रोटीन को इसके मौलिक रूप में नहीं बदला जा सकता है। उत्क्रमणीय विकृतीकरण में विकृतीकारक अभिकर्मक जैसे लवण या अम्ल विलयन हटाने पर विकृत प्रोटीन पुनः अपनी मौलिक दशा में पहुँच जाती है। विकृतीकरण से तात्पर्य सामान्यतः अनुत्क्रमणीय विकृतीकरण से ही रहता है। विकृतीकरण पर प्रोटीन में मौलिक (fundamental) परिवर्तन होता है और वे अपनी जैविकीय सक्रियता (biological activity) को खो देते हैं। इसी कारण एन्जाइम, जोकि प्रोटीन होते हैं, गरम किये जाने पर अपनी सक्रियता को खो देते हैं। विकृतीकरण के दौरान प्रोटीन का विशिष्ट एवं व्यवस्थित संरूपण खुल जाता है और वह अव्यवस्थित संरूपण ग्रहण करके विलयन में से अवक्षेपित हो जाता है।
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